जैव ईंधन
जट्रोफा उत्पादन तकनीक
जेट्रोफा करकास एक बहुद्देश्यीय अखाद्यतेल उत्पादक झाड़ी है, जिसकी उत्पत्ति अमेरिका और पश्चिम एशिया के उष्णकटिबंधीय इलाके में हुई। यह रबड़नुमा पदार्थ उत्पादित करता है, जिस कारण जानवर इसे चरना पसंद नहीं करते। यह एक कठोरजीवी और सुखाड़ में भी हरी-भरी रहनेवाली उपज है, जिसका उत्पादन बंजर भूमि में भी किया जा सकता है। इसकी उपज को आर्थिक रूप से 30 साल तक बनाये रखा जा सकता है। जेट्रोफा करकास के तेल का इस्तेमाल बायो डीजल के 20 प्रतिशत सम्मिश्रण के रूप में किया जा सकता है। हालांकि परिष्कृत तेल एक उपयुक्त साफ-सुथरा बायो डीजल है।
जट्रोफा उत्पादन तकनीक
जेट्रोफा करकास एक बहुद्देश्यीय अखाद्यतेल उत्पादक झाड़ी है, जिसकी उत्पत्ति अमेरिका और पश्चिम एशिया के उष्णकटिबंधीय इलाके में हुई। यह रबड़नुमा पदार्थ उत्पादित करता है, जिस कारण जानवर इसे चरना पसंद नहीं करते। यह एक कठोरजीवी और सुखाड़ में भी हरी-भरी रहनेवाली उपज है, जिसका उत्पादन बंजर भूमि में भी किया जा सकता है। इसकी उपज को आर्थिक रूप से 30 साल तक बनाये रखा जा सकता है। जेट्रोफा करकास के तेल का इस्तेमाल बायो डीजल के 20 प्रतिशत सम्मिश्रण के रूप में किया जा सकता है। हालांकि परिष्कृत तेल एक उपयुक्त साफ-सुथरा बायो डीजल है।
3 comments:
वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि दुनिया जैव ईंधन के उत्पादन के पीछे पगलाई जा रही है लेकिन इससे कार्बन उत्सर्जन में कमी आने की संभावना कम ही है।
जट्रोफा और स्विचग्रास के पौधों को खाद-पानी की जरूरत नहीं पड़ती। ये पौधे सूखे को भी झेल लेते हैं। भारत के मध्य क्षेत्र में सत्तर लाख हेक्टेयर जमीन है। अगर इस जमीन में जट्रोफा या स्विचग्रास की खेती की जाए तो सत्तर लाख टन फसल हो सकती है। इससे पैदा जैव-ईंधन देश की ऊर्जा जरूरतों की पांच फीसदी से भी ज्यादा की पूर्ति कर सकता है। आज की दुनिया में ऊर्जा के स्रोतों की पहुंच एक विभाजक रेखा बन गई है। जिन लोगों के पास ऊर्जा स्रोतों की पहुंच है, वे आर्थिक रूप से ज्यादा विकसित हैं। जो लोग इस स्रोत तक अपनी पहुंच नहीं बना पा रहे हैं, वो आर्थिक विकास की दौड़ में पिछड़ जाते हैं
सर जी, परती भूमि पर रतनजोत (Jatropha)का लगाया जाना तो फिर भी एक हद तक ठीक है, लेकिन कृषि योग्य भूमि पर इसकी खेती का प्रचलन अच्छा संकेत नही है....कुछ गौर करने लायक बिंदु
१)जैसा कि आपने भी कहा, जानवर इसे नही खाते । किसान जब खाद्यान्न की फसल लेता है तो साथ में उसे बाय प्रोड्क्ट्स (भुस, रजका आदि) मिलने से ये भरोसा रहता है कि वो अपने पशुधन को कुछ न कुछ खिला सकेगा । और वो एक निश्चित आजीविका होगी।
२) एक समस्या Food Security की । ये शायद आपके मित्र पर लागू ना हो, लेकिन खाद्यान्न की फसल लेते समय इतना भरोसा तो होता ही है कि किसान के अपने खाने भर का अनाज हो जायेगा । जट्रोफा उगायेंगे...उसे बाजार में बेचेंगे, जहाँ दाम निर्धारण अत्यंत संदेहास्पद है आज की तारीख में...और फिर अन्न खरीदेंगे..छोटी जोत वाले किसान के लिये तो पक्का मुश्किल हो जायेगी।
३) थोडा सा इससे हट कर- बायोडीजल, आम डीजल की तुलना में आर्थिक रूप से तभी फायदेमंद होता है जब जट्रोफा बीज ५-६ रुपये किलो हो..(फिलहाल तो सरकार ही शायद २५ रुपये लीटर पे बायोडीजल खरीद रही है...जो गलत है...इससे ज्यादा दाम मिलना चाहिये)। ५-६ रुपये किलो की पैदावार किसान को मंहगी पड सकती है..बीच में सिर्फ बीज की मांग की वजह से हवा हवा में रतनजोत बीज के दाम २०० रु. किलो तक पहुँच गये थे..पर वो ज्यादा दिन नही चल सकता
वैसे National Biofuel Mission ने सन २०११ तक देश में ११.२ लाख हेक्टेयर में रतनजोत पौधारोपण का लक्ष्य रखा है..
अतः रेल पटरियों के बीच की फालतू पडी जमीन पर तो रतनजोत उगाना ठीक है...पर अंधाधुंध खेती...कृषियोग्य भूमि पर..ना जी ना ।
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